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बिहार में मतदाता सूची विवाद: सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने बदली चुनावी दिशा

बिहार का मतदाता अब सिर्फ़ सरकार बदलने की लड़ाई नहीं देख रहा, बल्कि यह भी देख रहा है कि लोकतंत्र की कसौटी पर कौन खरा उतरता है। सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले के बाद मतदाता सूची विवाद केवल तकनीकी प्रक्रिया का हिस्सा नहीं रह गया, बल्कि यह राष्ट्रीय बहस और संवैधानिक अधिकारों की रक्षा का बड़ा मुद्दा बन चुका है।

सुप्रीम कोर्ट का बड़ा आदेश

सुप्रीम कोर्ट ने निर्वाचन आयोग को निर्देश दिया है कि मतदाता सूची से हटाए गए लगभग 65 लाख नामों और हटाने के कारणों को सार्वजनिक किया जाए। यह जानकारी ईपीआईसी (EPIC) नंबर और बूथवार जिलावार वेबसाइटों पर उपलब्ध कराई जाएगी। साथ ही, अख़बारों, टीवी, रेडियो और सोशल मीडिया के माध्यम से व्यापक स्तर पर लोगों तक पहुंचाई जाएगी।

इसके अलावा कोर्ट ने यह भी कहा कि आधार कार्ड को वैध पहचान पत्र के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। यह फैसला पारदर्शिता और जवाबदेही को मज़बूत करता है और हर मतदाता को अपने संवैधानिक अधिकार के प्रति सजग बनाता है।

प्रवासी बिहारियों की सबसे बड़ी चिंता

बिहार के लाखों प्रवासी मजदूर जो रोज़गार की तलाश में दिल्ली, मुंबई, पंजाब और खाड़ी देशों तक फैले हुए हैं, उनके नाम सबसे ज़्यादा खतरे में रहते हैं।

  • लंबे समय तक घर न लौट पाने के कारण उनका नाम सूची से हटाया जाता है।
  • छुट्टी लेकर दस्तावेज़ जमा करना और प्रक्रिया पूरी करना उनके लिए लगभग असंभव होता है।

सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ कहा कि सिर्फ़ दस्तावेज़ न देने को आधार बनाकर मताधिकार समाप्त नहीं किया जा सकता। यह फैसला प्रवासी बिहारियों के लिए कानूनी ढाल बनकर आया है।

राजनीति में नया मोड़

बिहार में मतदाता सूची केवल चुनावी दस्तावेज़ नहीं, बल्कि सत्ता समीकरण की धड़कन है।

  • भाजपा इसे राष्ट्रीय सुरक्षा और जनसंख्या असंतुलन का मुद्दा मानती है।
  • राजद और कांग्रेस इसे वोट चोरी” और संवैधानिक अधिकारों का हनन बताते हैं।

तेजस्वी यादव और विजय कुमार सिन्हा जैसे नेताओं के नाम दो अलग-अलग जगह दर्ज होने से यह विवाद और गहरा हो गया है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला अब सभी दलों को पारदर्शिता की कसौटी पर परखने का काम करेगा।

राहुल गांधी और विपक्ष की नैतिक बढ़त

इस निर्णय ने राहुल गांधी और विपक्ष को एक नया हथियार दिया है। उनका “एक व्यक्ति, एक वोट” का नारा अब कानूनी वैधता और जनसमर्थन दोनों पाता है। इससे विपक्ष को यह कहने का अवसर मिलता है कि उनकी लड़ाई केवल राजनीति नहीं, बल्कि संविधान और मतदाता अधिकारों की रक्षा के लिए थी।

चुनाव आयोग के लिए सख़्त चेतावनी

सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश चुनाव आयोग को याद दिलाता है कि

  • पूरी प्रक्रिया डिजिटल पारदर्शिता के साथ सार्वजनिक करनी होगी।
  • प्रवासी मतदाताओं के लिए मोबाइल वेरिफिकेशन केंद्र स्थापित करने होंगे।
  • किसी भी मतदाता का नाम हटाने से पहले व्यक्तिगत पुष्टि अनिवार्य करनी होगी।

निष्कर्ष

बिहार की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि बताती है कि मतदाता सूची विवाद कोई नया नहीं है, लेकिन इस बार चुनौती कहीं बड़ी है। 65 लाख मतदाताओं के अधिकार सुनिश्चित करना ही लोकतंत्र की असली कसौटी है।

आने वाला चुनाव सिर्फ़ सत्ता परिवर्तन नहीं, बल्कि इस बात की परीक्षा भी होगा कि कौन दल और कौन संस्था लोकतांत्रिक मूल्यों और मतदाता अधिकारों की रक्षा के लिए खड़ा होता है।

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