बिहार की चंद्रशेखर रावण की एंट्री से क्‍या बदलेंगे दलित राजनीति के समीकरण… मांझी, पासवान और मायावती को कैसी चुनौती?

बिहार में दलित वोटों की संख्या 20 फीसदी के आसपास है. इसमें सबसे बड़ा हिस्सा रविदास और पासवान समाज का है. देखना दिलचस्‍प होगा कि चंद्रशेखर रावण की एंट्री से समीकरण में कैसे बदलाव आते हैं.

पटना:

बिहार में दलित वोटों के लिए जंग छिड़ी  है. एनडीए और महागठबंधन सबने अपना पूरा जोर लगा रखा है. हालांकि एनडीए में ‘हम’ वाले जीतन राम मांझी की पार्टी  और लोजपा (रामविलास) वाले चिराग पासवान के बीच टशन देखा जा रहा है. दूसरी ओर मायावती की बसपा जैसी पार्टियां भी हैं, जो दलितों के हितैषी होने का दावा करती है. इस बीच बिहार की राजनीति में एक नया मोड़ आया है, जब भीम आर्मी के प्रमुख और आजाद समाज पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद उर्फ ‘रावण’ ने विधानसभा चुनावों में उतरने का ऐलान किया. 

पिछले कुछ वर्षों में चंद्रशेखर एक प्रभावशाली दलित नेता के रूप में उभरे हैं, जिनकी छवि एक आक्रामक, मुखर और संघर्षशील युवा नेता की है. ऐसे में उनका फैसला केवल एक राजनीतिक निर्णय नहीं बल्कि दलित राजनीति के भविष्य पर भी दूरगामी प्रभाव डाल सकता है. 

जेएनयू में राजनीति विज्ञान के सहायक प्रोफेसर हरीश एस वानखेड़े अपने एक लेख में कहते हैं कि चुनावी महत्व के बावजूद, दलित बिहार में आर्थिक अभाव और सामाजिक असमानताओं में फंसे हुए हैं, जबकि उनका राजनीतिक प्रभाव उप-जातिगत विभाजनों और प्रतिस्पर्धी नेतृत्व के कारण बिखरा हुआ है. सवाल ये है कि क्‍या चंद्रशेखर इस बिखराव को एकजुटता में बदल पाएंगे!

मांझी, पासवान, मायावती के बीच चंद्रशेखर की भूमिका 

बिहार में दलित राजनीति अब तक रामविलास पासवान और जीतन राम मांझी जैसे नेताओं के इर्द-गिर्द घूमती रही है. लेकिन अब रामविलास पासवान नहीं रहे और लोजपा में टूट हो चुकी है. वहीं, मांझी की भूमिका सीमित होती जा रही है. इस परिस्थिति में चंद्रशेखर की एंट्री एक वैकल्पिक नेतृत्व का संकेत देती है. 

बिहार में चिराग पासवान या जीतन राम मांझी जो कि मोटे तौर पर दलित राजनीति के सूत्रधार बने हुए हैं. इसके अलावा कुछ जिलों में मायावती की पार्टी (बसपा) का भी प्रभाव है. हालांकि जानकार बताते हैं कि चंद्रशेखर थोड़ी मेहनत करें तो मायावती का विकल्‍प बन सकते हैं, जैसा प्रयास उन्‍होंने उत्तर प्रदेश में जारी रखा है.  

यूपी से सटे जिलों में मायावती का प्रभाव 

मायावती का प्रभाव सीमित तौर पर रहता है, खासकर उन इलाकों में जो उत्तर प्रदेश से सटे हुए हैं,  जैसे बिहार के कैमूर , बक्सर और रोहतास जिलों के कुछ विधानसभा क्षेत्रों जैसे चैनपुर, मोहनिया, रामपुर, भभुआ, बक्सर जैसी सीटों पर बीएसपी का असर रहा है. भले ही बीएसपी ने बहुत सीटें न जीती हों, लेकिन कई जगहों पर हार-जीत में उसकी भूमिका निर्णायक रही है. 

लगभग हर चुनाव में मायावती की बहुजन समाज पार्टी अपने उम्मीदवार उतारती है और 4 से 5 उम्मीदवार जीत भी जाते हैं. ये अलग बात है कि बाद में उन्हें बड़ी पार्टियां हाईजैक कर लेती है. अब चंद्रशेखर आजाद, इसी जगह पर कब्जा करने के लिए बिहार में उतर रहे हैं.

मायावती की स्थिति 2020 से बहुत अलग 

बीएसपी ने साफ कहा है कि वह ना एनडीए में जाएगी, ना इंडिया गठबंधन में, वह अकेले चुनाव लड़ेगी. इस ऐलान से AIMIM यानी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी के थर्ड फ्रंट बनाने की पहल को बड़ा झटका लगा है. 2020 के विधानसभा चुनाव में मायावती की बीएसपी ने ओवैसी की एआईएमआईएम और अन्य छोटे दलों के साथ मिलकर ‘ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेक्युलर फ्रंट’ (GDSF) के बैनर तले चुनाव लड़ा था.  इस फ्रंट में उपेंद्र कुशवाहा की आरएलएसपी, ओम प्रकाश राजभर की सुभासपा, संजय चौहान की जनवादी पार्टी और एसजेडीडी शामिल थीं, लेकिन नतीजे निराशाजनक रहे. 

आज एआईएमआईएम के पास सिर्फ एक विधायक अख्तरूल ईमान बचे हैं, जो पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष हैं, जो कि अभी भी प्रयासों में लगे हुए हैं.  

कांग्रेस, जेडीयू, आरजेडी को चुनौती दे सकते हैं चंद्रशेखर 

चंद्रशेखर रावण, परंपरागत दलों को भी चुनौती दे सकते हैं. जैसे जेडीयू, आरजेडी और कांग्रेस जैसी पार्टियां,  जो अब तक दलित वोट बैंक को अपने-अपने तरीके से साधती रही हैं, उनके लिए वो एक चुनौती बन सकते हैं. खासकर अगर वे दलित-मुस्लिम एकता के फाॅर्मूले पर काम करें तो सामाजिक समीकरणों में बदलाव संभव है.

हरीश वानखेड़े के मुताबिक, दलित एक महत्वपूर्ण चुनावी फैक्‍टर है और ये बिहार की 15 लोकसभा क्षेत्रों की कई विधानसभा सीटों को प्रभावित करते हैं. अगर चंद्रशेखर इन सीटों पर दलित वोटों को एकजुट नहीं कर पाए तो भी ये तो निश्चित है कि चुनाव में दलित वोटों का बिखराव होगा. इससे एक संभावना ये भी है कि भाजपा जैसे संगठित दलों को अप्रत्यक्ष लाभ भी हो सकता है. 

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